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प्रेयसी
 

पहले की घन-घटा वर्षण बनी हुई,
कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया।
देखती हुई सहज
हो गई मैं जड़ीभूत,
जगा देहज्ञान,
फिर याद गेह की हुई;
लज्जित
उठे चरण दूसरी ओर को—
विमुख अपने से हुई!
चली चुपचाप,
मूक सन्ताप हृदय में,
पृथुल प्रणय-भार।
देखते निमेषहीन नयनों से तुम मुझे
रखने को चिरकाल बाँध कर दृष्टि से
अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिये,
मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय,
पीने को अमृत अङ्गों से झरता हुआ।
कैसी निरलस दृष्टि!

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