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नर्गिस बीत चुका शीत, दिन वैभव का दीर्घतर डूब चुका पश्चिम में, तारक-प्रदीप-कर स्निग्ध-शान्त-दृष्टि सन्ध्या चली गई मन्द मन्द प्रिय की समाधि-ओर, हो गया है रव बन्द विहगों का नीड़ों पर, येवल गजा का स्वर सत्य ज्या शाश्वत सुन पड़ता है स्पष्ट तर, बहता है साथ गत गौरव का दीर्घ काल प्रहत-तरङ्गकर-ललित-तरल-ताल । चैत्र का है कृष्ण पक्ष, चन्द्र तृतीया का आज उग आया गगन में, ज्योत्स्ना तनु-शुभ्र-साज नन्दन की अप्सरा धरा को विनिर्जन जान उतरी सभय करने को नेश गङ्गा-स्लान । तट पर उपचन सुरम्य, मैं मौनमन बैठा देखता हूँ तारतम्य विश्व का सघन; जान्हवी को घेर कर आप उठे ज्यों करार

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