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प्रकाश - रोक रहे हो जिन्हें नहीं अनुराग-मूर्ति वे किसी कृष्ण के उर की गीता अनुपम ? और लगाना गले उन्हें- जो धूलि-धूसरित खड़े हुए हैं- कब से प्रियतम, है भ्रम ? हुई दुई में अगर कहीं पहचान तो रस भी क्या- अपने ही हित का गया न जब अनुमान ? है चेतन का आभास जिसे, देखा भी उसने कभी किसी को दास १ नहीं चाहिये ज्ञान जिसे, वह समझा कभी प्रकाश ? ६.१.२३.

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