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नारायण मिलें हँस अन्त में याद है वह हरित दिन बढ़ रहा था ज्योति के जब सामने मैं देखता दूर-विस्तृत धूम्र-धूसर पथ भविष्यत् का विपुल आलोचनाओं से जटिल तनु-तन्तुओं सा सरल-वक्र, कठोर-कोमल हास सा, गम्य-दुर्गम मुख-बहुल नद-सा भरा। थक गई थी कल्पना जल-यान-दण्ड-स्थित खगी-सी खोजती तट भूमि सागर-गर्भ में, फिर फिरी थककर उसी दुख-दण्ड पर। पवन-पीड़ित पन्न-सा कम्पन प्रथम वह अब न था। शान्ति थी, सब हट गये वादल विकल वे ब्योम के।