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अनामिका
 

जो था समीप विश्व,
दूर दूरतर दिखा।
मिली ज्योति-छबि से तुम्हारी
ज्योति-छबि मेरी,
नीलिमा ज्यों शून्य से;
बँध कर मैं रह गई;
डूब गये प्राणों में
पल्लव-लता-भार
वन-पुष्प-तरु-हार
कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,—
सुन्दर गगन के भी रूप-दर्शन सकल—
सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा,
सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।
प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गई!
बँधी हुई तुम से ही
देखने लगी मैं फिर
फिर प्रथम पृथ्वी को;
भाव बदला हुआ—

:४: