यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सेवा-प्रारम्भ एक दूसरे को पहचान कर प्रेम से मिले अपना अति प्रिय जन जान कर । जमींदार अपने घर ले गये, बोले-"कितने दयालु रामकृष्ण देव थे । आप लोग धन्य हैं, उनके जो ऐसे अपने, अनन्य हैं।" द्रवित हुए । स्वामी जी ने कहा, "नवद्वीप जाने की है इच्छा, महाप्रभु श्रीमच्चैतन्यदेव का स्थल देखू, पर सम्यक् निस्सम्बल हूँ इस समय, जाता है पास तक जहाज, सुना है कि छूटेगा आज।" धूप चढ़ रही थी, बाहर को जमींदार ने देखा,-घर को,- फिर घड़ी, हुए उन्मन अपने आफिस का कर चिन्तन उठे, गये भीतर, बड़ी देर बाद आये बाहर, - ,

१७५