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अनामिका भीमकाय मृत्युतन्त्र धूस रहे अन्त्र, मन्त्र रहा यही शेष । बढ़े समर के प्रहरण, नये नये हैं प्रकरण, छाया उन्माद मरण-कोलाहल का, दर्प जहर, जर्जर नर, स्वार्थपूर्ण गूंजा स्वर, रहा है विरोध घहर इस-उस दल का । बँधा व्योम, बढ़ी चाह, बहा प्रखरतर प्रवाह, वैज्ञानिक समुत्साह आगे, सोये सौ-सौ विचार थपकी दे बार-बार मौलिक मन को मुधार जागे ! मैक्सिमनान करने को जीवन-संहार हुआ जहाँ, खुला यहीं नोब्ल-पुरस्कार ! राजनीति नागिनी डसती है, हुई सभ्यता अभागिनी । . १७२: