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सेवा-प्रारम्भ - नई भारती जागी जन-जन को कर नई आरती। घेर गगन को अगणन जागे रे चन्द्र-तपन- पृथ्वी-प्रह-तारागण ध्यानाकर्षण, हरित-कृष्ण-नील-पीत रक्त-शुभ्र-ज्योति-नीत नव नव विश्वोपवीत, नव नव साधन । खुले नयन नवल रे- ऋतु के-से भिन्न सुमन करते ज्यों विश्व-स्तवन आमोदित किये पवन भिन्न गन्ध से। अपर ओर करता विज्ञान घोर नाद दुर्धर शत-रथ-घर्घर विश्व-विजय-वाद । स्थल-जल है समाच्छन्न विपुल-मार्ग-जाल-जन्य, तार-तार समुत्सन्न देश-महादेश, निर्मित शत लौहयन्त्र >

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