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सखा के प्रति और कृपा के पात्र हुए भी तो क्या फल, तुम वारम्वार सोचो, दो, न फेर कर लो यदि हो अन्तर में कुछ भी प्यार । अन्तस्तल के अधिकारी तुम, सिन्धु प्रेम का भरा अपार के अन्तर में, दो जो चाहे, हो विन्दु सिन्धु उसका निःसार । ब्रह्म और परमाणु-कीट तक, सब भूतों का है आधार एक प्रेमसय, प्रिय, इन सबके चरणों में दो तन-मन वार! बहु रूपों से खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ हैं ईश। व्यर्थ खोज । यह जीव-प्रेम की ही सेवा पाते जगदीश ।* स्वामी विवेकानन्द जी के 'सखार प्रति' का अनुवाद । ---

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