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अनामिका - मातृभाव से वे ही आतीं । रोग, शोक, दारिद्रय कठोर, धर्म, अधर्म शुभाशुभ मे है पूजा उनकी ही सब ओर, बहु भावों से, कहो और क्या कर सकता है जीव विधान ? भ्रम में ही है वह सुख की आकाक्षा में हैं डूवे प्राण जिसके, वैसे दुख की रखता है जो चाह घोर उन्माद ! मृत्यु चाहता है--पागल है वह भी, वृथा अमरतावाद ! जितनी दूर, दूर चाहे जितना जागो चढ़कर रथ पर तीत्र बुद्धि के, वहाँ वहाँ तक फैला यही जलधि दुस्तर संसृति का, सुख-दुःख-तरङ्गावर्त-घूर्य, कम्पित. चञ्चल, पक्ष-विहीन हो रहे हो तुम, सुनो यहाँ के विहग सकल ! नहीं कहीं उड़ने का पथ है, कहाँ भाग जाओगे तुम ? बार बार आधात पा रहे-व्यर्थ कर रहे हो उद्यम ! छोड़ो विद्या जप-तप का बल; स्वार्थ-विहीन प्रेम आधार एक हृदय का, देखो, शिक्षा देता है पता कर प्यार अग्नि-शिखा को आलिङ्गन कर, रूप-मुग्ध वह कीट अधम अन्ध; और तुम मत्त प्रेम के, हृदय तुम्हारा उज्ज्वलतम । प्रेमवन्त ! सब स्वार्थ-मलिनता अनल-कुण्ड में भस्मीकृत कर दो, सोचो, भिक्षुक-हृदय सदा का ही है सुख-वर्जित, - १६८