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सखा के प्रति - , जगह तुम्हे तब । विद्यार्जन के लिये प्राण-पण से अतिपात अर्द्ध आयु का किया, फिरा फिर पागल-सा फैलाये हाथ प्राण-रहित छाया के पीछे लुब्ध प्रेम का, विविध निषेध- विधियों की हैं धर्म-प्राप्ति को, गङ्गा-तट, श्मशान, गत-खेद, नदी-तीर, पर्वत-गहर फिर; भिक्षाटन में समय अपार पार किया असहाय, छिन्न कौपीन जीर्ण अम्बर तनु धार द्वार-द्वार फिर, उदर-पूर्ति कर, भग्न शरीर तपस्या-भार- धारण से, पर अर्जित क्या पाया है मैने अन्तर-सार- सुनो, सत्य जो जीवन में मैंने समझा है-यह संसार घोर तरङ्गाघात क्षुब्ध है-एक नाव जो करती पार;- तन्त्र, मन्त्र; नियमन प्राणों का, मत अनेक, दर्शन-विज्ञान, त्याग-भोग, भ्रम घोर बुद्धि का, 'प्रेम प्रेम' धन लो पहचान । जीव-ब्रह्म-नर-निर्जर-ईश्वर-प्रेत-पिशाच-भूत- -बैताल- पशु-पक्षी-कीटाणुकीट में यही प्रेम अन्तर-तम-ज्वाल । देव, देव । वह और कौन है, कहो चलाता सबको कौन ? -मॉ को पुत्र के लिये देता प्राण,-दस्यु हरता है, मौन प्रेरण एक प्रेम का ही। वे हैं मन-वाणी से अज्ञात- वे ही सुख-दुख में रहती हैं-शक्ति मृत्यु-रूपा अवदात, - १६७: