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प्रेयसी
 

प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर—
प्रणय-मिलन-गान,
प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु
प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;
करती विहार
उपवन में मैं, छिन्न-हार
मुक्ता-सी निःसङ्ग,
बहु रूप-रङ्ग वे देखती, सोचती;
मिले तुम एकाएक;
देख मैं रुक गई:—
चल पद हुए अचल,
आप ही अपल दृष्टि,
फैला समिष्ट में खिंच स्तब्ध मन हुआ।
दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को,
इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये।
दूर थी,
खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई
अपनी ही दृष्टि में;

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