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सखा के प्रति " रोग स्वास्थ्य में, सुख में दुख, है अन्धकार में जहाँ प्रकाश, शिशु के प्राणों का साक्षी है रोदन जहाँ वहाँ क्या आश सुख की करते हो तुम, मतिमन् ?--छिड़ा हुआ है रण अदिराम घोर द्वन्द्व का; यहाँ पुत्र को पिता भी नहीं देता स्थान | गूंज रहा रव घोर स्वार्थ का, यहाँ शान्ति का मुक्ताकार कहाँ ? नरक प्रत्यक्ष स्वर्ग है; कौन छोड़ सकता संसार ? कर्म-पाश से बँधी गला, वह क्रीतदास जाये किस ठौर ? सोचा, समझा है मैंने, पर एक उपाय न देखा और, योग-भोग, जप-तप, धन-सञ्चय, गार्हस्थ्याश्रम, दृढ़ संन्यास, त्याग-तपस्या-त्रत सव देखा, पाया है जो मर्माभास मैने, समझा, कहीं नहीं सुख, है यह तनु-धारण ही व्यर्थ, उतना ही दुख है जितना ही ऊँचा है तव हृदय समर्थ । हे सहृदय, निस्वार्थ प्रेम के ! नहीं तुम्हारा जग में स्थान, लौह-पिण्ड जो चोटे सहता, मर्मर के अति-कोमल प्राण उन चोटों को सह सकते क्या ? होओ जड़वत्, नीचाधार, मधु-मुख, गरल-हृदय, निजता-रत, मिथ्यापर, देगा संसार 1 2 >

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