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वसन्त की परी के प्रति - 2 (गीत) 'आओ, आओ फिर, मेरे वसन्त की परी- छवि-विभावरी; सिंहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी- छवि-विभावरी! -वहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरङ्ग, तरल मुक्त नव नव छल के प्रसङ्ग, पूरित-परिमल निर्मल सजल-अङ्ग, शीतल-सुख मेरे तट की निस्तल निझरी- छवि-विभावरी! निर्जन ज्योत्स्नाचुम्बित वन सत्रन, सहज समीरण, कली निराकरण आलिङ्गन दे उभार दे मन, तिरे नृत्य करती मेरी छोटी सी तरी- छवि-विभावरी!