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ठूठ यह है आज! गई इसकी कला, गया है सकल साज! अब यह वसन्त से होता नहीं अधीर, पल्लवित झुकता नहीं अब यह धनुष-सा, कुसुम से काम के चलते नहीं हैं तीर, छोह में बैठते नहीं पथिक श्राह भर, झरते नहीं यहाँ दो प्रणयियों के नयन-नीर, केवल वृद्ध विहग एक बैठता कुछ कर याद !

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