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हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र मैं जीर्ण-साज बहु-छिद्र श्राज, तुम सुदल सुरज सुवास सुमन मैं हूँ केवल पदतल-आसन, तुम सहज बिराजे महाराज। ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि मैं ही वसन्त का अग्रदूत, ब्राह्मण-समाज में ज्यों अछूत मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छबि । तुम मध्य भाग के, महाभाग !-- तरु के उर के गौरव प्रशस्त मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त तुम अलि के नव रस-रङ्ग-राग। देखो, पर, क्या पाते तुम "फल" देगा जो भिन्न स्वाद रस भर, कर पार तुम्हारा भी अन्तर निकलेगा जो तरु का सम्बला - > ११४