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अनामिका रे उन्माद । भुलाता है तू अपने को, न फिराता दृष्टि पीछे भय से, कहीं देख तू भीमा महाप्रलय की सृष्टि । दुख चाहता; बता; इसमे क्या भरी नहीं है सुख की प्यास ? तेरी भक्ति और पूजा में चलती स्वार्थ-सिद्ध की साँस । छाग-कएठ की रुधिर-धार से सहम रहा तू, भय-सन्चार ! अरे कापुरुप, बना दया का तू आधार !-धन्य व्यवहार! फोड़ो वीणा, प्रेम-सुधा का पीना छोड़ो, तोड़ो, वीर, दृढ़ आकर्षण है जिसमें उस नारी-माया की जंजीर। बढ़ जाओ तुम जलधि-ऊर्मि-से गरज गरज गाओ निज गान, ऑसू पीकर जीना, जाये देह, हथेली पर लो जान । -