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अनामिका 9 अनल निकलता छेद भूमितल, चूर हो रहे अचल-शरीर। हैं सुहावने मन्दिर कितने नील-सलिल सर वीचि-विलास- वलयित कुवलय, खेल खिलाती मलय वनज-वन-यौवन-हास। बढ़ा रहा है अंगूरों का हृदय-रुधिर प्याले का प्यार, फेन-शुभ्र-सिर उठे बुलबुले मन्द-मन्द करते गुजार। बजती है श्रुति-पथ मे वीणा, तारों की कोमल झङ्कार ताल-ताल पर चली बढ़ाती ललित वासना का संसार । भावों में क्या जाने कितना ब्रज का प्रकट प्रेम उच्छ्वास, ऑसू ढलते, विरह-ताप से तप्त गोपिकामों के श्वास;