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गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को - जड़ और जीव सारे। मैं ही खेलता हूं शक्ति रूपा निज माया से । एक, होता अनेक, मैं देखने के लिये सब अपने स्वरूपों को। मेरी ही आज्ञा से बहती इस वेग से है झम्मा इस पृथ्वी पर, गरज उठता है मेघ- अशनि में नाद होता, मन्द मन्द बहतो वायु मेरे निश्वास के ग्रहण और त्याग से, हिमकर सुख-हिमकर की धारा जब बहती है, तरु औ, लताएँ हैं ढकती धरा की देह. शिशिर से धुले फुल्ल मुख को उठा कर वे तकत्ते रह जाते हैं भास्कर को सुमन-वृन्द ।" 3 ३.३, ११२४,

  • स्वामी विवेकानन्द जी महाराज की "गाइ गीत सुनाते तोमाय"

का भनुवाद।