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अनामिका - आदि वाणी प्रणव-ऑकार ही बजता महाशून्य-पथ में, अन्तहीन महाकाश सुनता महानाद-ग्वनि, कारण-मण्डली की निद्रा छूट जाती है, अगणित परमाणुओं में प्राण समा जाते हैं, में नर्तनावर्वोच्छवास बड़ी दूर-दूर से चलते केन्द्र की तरफ, चेतन पवन है उठाती ऊर्मिमालाएँ महाभूत-सिन्धु पर, परमाणुओं के प्रावत धन विकास भौर रङ्ग-भङ्ग-पतन-उच्छ्वास-सङ्ग बहती बड़े बेग से हैं चे तरङ्गराजियाँ, वे अनन्त खण्ड उठे घात-प्रतिघातों से शून्य पथ में दौड़ते-~-- बन बन रव-मण्डल हैं तारा-ग्रह धूमते, घूमती यह पृथ्वी भी, मनुष्यों की वास-भूमि । "मैं ही हूं आदि कवि, मेरी ही शक्ति के रचना-कौशल में हैं जिससे अनन्त-