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अनामिका

- मन की सव वृत्तियाँ एक ही हो जाती जय, फैलता है कोटि-सूर्य-निन्दित सत्-चित्-प्रकाश, गल जाते भानु, शशधर और तारादल, विश्व-व्योममण्डल-तलातल-पाताल भी, ब्रह्माण्ड गोष्पद-समान जान पडता है। दूर जाता है जब मन वाह्यभूमि के, होता है शान्त धातु, निश्चल होता है सत्य; तन्त्रियाँ हृदय की तब ढीली पड़ जाती है, खुल जाते बन्धन समूह, जाते माया-मोह, गूंजता तुम्हारा अनाहत नाद जो वहाँ, सुनता है दास यह भक्तिपूर्वक नतमस्तक, तत्पर सदा ही वह पूर्ण करने को जो कुछ भी हो तुम्हारा कार्य । "मैं ही तब विद्यमान प्रलय के समय में जब ज्ञान-ज्ञेय ज्ञाता-लय होता है अगणन ब्रह्माण्ड पास करके, यह ध्वस्त होता संसार