यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को अति स्थूल-अति स्थूल बाह्य यह विकास है केश जैसे शिर पर। योजनों तक फैला हुआ हिम से आच्छादित मेरु-तट पर है महागिरि, अभ्रभेदी बहु शृङ्ग अभ्रहीन नभ में उठे, दृष्टि झुलसाती हुई हिम की शिलाएँ वे, विद्युत-विकास से है शतगुण प्रखर ज्योति; उत्तर अयन में उस एकीभूत कर की सहस्र ज्योति-रेखाएँ कोटि-वजू-सम-खर-कर-धारा जब ढालती हैं, एक एक शृङ्ग पर मूछित हुए-से भुवन-भास्कर हैं दीखते, गलता है हिम-शृङ्ग टपकता गुहा में, घोर नाद करता हुआ टूट पड़ता है गिरि, स्वप्न-सम जल-बिम्ब जल में मिल जाता है। .881