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अनामिका - कौन चाहता भी है जानने को ? भुक्ति-मुक्ति-भक्त आदि जितने हैं- जप-तप-साधन-भजन, आज्ञा से तुम्हारी मैंने दूर इन्हें कर दिया। एकमात्र पाशा पहचान की ही है लगी, इससे भी करो पार! देखते हैं नेत्र ये सारा संसार, नहीं देखते हैं अपने को, देखें भी क्यों, कहो, देखते वे अपना रूप देख दूसरे का मुख । नेत्र मेरे तुम्ही हो, रूप तुम्हारा ही घट घट में है विद्यमान । वालकेलि करता हूँ तुम्हारे साथ, क्रोध करके कभी, तुमसे किनारा कर दूर चला जाता हूँ; किन्तु निशाकाल में, देखता हूँ, शय्या-शिरोभाग में खड़े तुम चुपचाप,