यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वन-बेला तुम रहो एक मेरे उर में अपनी छवि में शुचि सऊचरिता। फिर उषःकाल मै गया टहलता हुआ, वेल की झुका डाल तोड़ता फूल कोई ब्राह्मण, 'जाती हूँ मैं', बोली घेला, जीवन प्रिय के चरणों पर करने को अर्पण:- देखती रही; निस्स्वन, प्रभात की वायु वही । ११.७.३७.

६१: