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अनामिका 3 भाव में हरा मैं, देख मन्द हॅस दी वेला, बोली अस्फुट स्वर से-'यह जीवन का मेला चमकता सुधर बाहरी वस्तुओं को लेकर, त्यो त्यों आत्मा की निधि पावन बनती पत्थर । विकती जो कौड़ीमोल यहाँ होगी कोई इस निर्जन में, खोजो, यदि हो समतोल वहाँ कोई, विश्व के नगर-धन में। है वहाँ मान, इसलिये बड़ा है एक, शेष छोटे अजान; पर ज्ञान जहाँ, देखना-बड़े, छोटे; असमान, समान वहाँ:- सब सुहद्वर्ग उनकी आँखों की आभा से दिग्देश स्वर्ग ।' बोला मैं-'यही सत्य, सुन्दर! नाचती वृन्त पर तुष, ऊपर होता जब उपल-प्रहार प्रखर! अपनी कविता - ,