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वन-बेला 3 करता प्रचार मन्च पर खड़ा हो, साम्यवाद इतना उदार ! तप तप मस्तक हो गया सान्ध्य नभ का रक्ताभ दिगन्त-फलक, खोली ऑखें आतुरता से, देखा अमन्द प्रेयसी के अलक से आती ज्यों स्निग्ध गन्ध, 'आया हूँ मैं तो यहाँ अकेला, रहा बैठ' सोचा सत्वर, 1 देखा फिरकर, घिरकर हँसती उपवन-बेला जीवन में भर :- यह ताप, त्रास मस्तक पर लेकर उठी अतल की अतुल साँस, ज्यों सिद्धि परम भेदकर कर्म-जीवन के दुस्तर क्लेश, सुपम के आई ऊपर, जैसे पार कर क्षार सागर अप्सरा सुघर सिक्त-तन-केश, शत लहरों पर कॉपती विश्व के चकित दृश्य के दर्शन-शर ।

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