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एक ही शरीर में अनेक आत्माएँ


का परिवर्तन भी प्रकृत अवस्था में न होकर रोग, चोट, प्राण-परिवर्तन की क्रिया अथवा नशीली चीज़ों के प्रयोग आदि से होता है।

सच क्या है?

लेखकों के कथन में कुछ सत्य ज़रूर है, पर वे उसे बहुत अधिक खींच ले गए हैं। यदि उनका कहना सत्य मान लिया जाय, तो अपढ़ गँवारों का विदेशी भाषा बोलना जैसा कि कभी-कभी देखने में आया है, कैसे ठीक होगा? मन ने जिन बोधों को कभी नहीं पाया, वे (विदेशी भाषा बोलना आदि) कैसे व्यक्त हो सकते हैं। हिपनाटिज्म अर्थात् प्राण-परिवर्तन की क्रिया से ऐसी अनेक प्रकार की विलक्षण बातें देखने में आई हैं। लंदन में एक बार हिपनाटिज्म की क्रिया से प्रयुक्त एक मनुष्य ने एक लेख लिखा। उसे कोई न पढ़ सका। अजायब-घर में भी किसी से एक अक्षर भी न पढ़ा गया। कुछ दिन बाद एक जापानी ने उसे बहुत पुरानी जापानी-भाषा का लेख बतलाया, और पढ़कर उसका अनुवाद कर दिया। अब यदि मन बोधों का समुदाय है, तो यह पुरानी जापानी लंदन के आदमी ने कब, कहाँ और कैसे पढ़ी? बहुत-सी दशाओं में देखी हुई चीज़ हो देख पड़ती है, यह निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकताः पर सर्वदा ऐसा ही होता है। अदल-बदलकर प्रकट होनेवाले व्यक्तियों में भी ग्रंधकार का सिद्धांत संघटित नहीं होता। ऊपर जो उदाहरण दिए गए हैं, उनमें मन को अनेक बोधों का समुदाय