व्यर्थ इधर-उधर दौड़ा करते हैं। उनको खबर ही नहीं कि
जिसकी उन्हें खोज है, वह उन्हीं के हृदय में है।
यहाँ पर बैठा हुआ मैं अपने को उसी रूप में देख रहा हूँ, जो मेरा यथार्थ रूप है। हम सब पूर्ण परमात्मा के एक अंश हैं। यह बात मैंने यहाँ आने पर जानी। आदि-अंत की भावना मनुष्य की कल्पना है। न कभी किसी चीज़ का आदि था, और न किसी चीज का अंत ही है। मुझे इस बात का पता नहीं कि कभी किसी लोक या ग्रह की उत्पत्ति एकदम हो गई हो। जितनी चीज़ें हैं, सब क्रम-विकास-पूर्वक एक स्थिति से दूसरी स्थिति को पहुँची हैं।
जो प्राणी पृथ्वी पर ख़ूब आराम से थे, और अनेक प्रकार के सुखैश्वर्य जिन्होंने भोगे थे, उनकी गिनती सर्वोत्तम और सर्वोच्च आत्माओं में नहीं। सर्वोच्च वे हैं, जिनकी अग्नि-परीक्षा हो चुकी हैं, और जिन्होंने जीवन-मार्ग में अनेक आपदाओं को झेला है।
उच्च-नीच, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष होने का कारण है। ये भेद व्यर्थ नहीं। और-और कारणों के सिवा इस कारण से भी परमात्म-ज्ञान का विकास प्राणियों के हृदय में हो सकता है।
पुनर्जन्म को लोग जैसा समझते हैं, वैसा नहीं। पुनर्जन्म का मतलब 'पीछे जाना' नहीं है। उसका मतलब हमेशा आगे जाना है। प्रत्येक जन्म में प्राणी पहले जन्म की अपेक्षा, कम-से-कम, एक क़दम ज़रूर आगे बढ़ता है। कुछ--न-कुछ जरूर सीखता है।