पर योगशास्त्रीजी हमको मकान के भीतर, अपने आसन के पास, ले गए। परंतु हमारे साथ वासुदेव शास्रो और उनके चिरजीव
नारायण को ले जाने से आपने इनकार किया। हमने वासुदेव शास्त्री से कहा कि यह शर्त हम मंजूर किए लेते हैं। अगर हमको
इनके अंतःसाक्षित्व से संतोष हुआ, तो आप हमारे बाद इनसे जो कुछ पूछना हो, पूछ आइएगा। उन्होंने कहा--हमें कुछ नहीं पूछना; हम इनसे पहले ही से परिचित हो चुके हैं। अस्तु।
हम योगशास्त्रीजी के आसन के पास बैठे। वह कुछ ध्यानस्थ-से हुए, और हमारे भविष्य से संबंध रखनेवाली बातें कहने लगे। हमने सुनकर कहा कि आप हमारे प्रश्नों का उत्तर देकर अपनी विद्या में हमारी श्रद्धा उत्पन्न करें, तब आप आगे होनेवाली बातें कहें। ऐसा करने से आपकी उक्तियों में हमें अधिक विश्वास होगा। इस पर वह किसी तरह राज़ी हुए। तब हमने फ़ारसी के---
चु अज़ क़ौमे यके वेदानिसी कई
न क़ेहरा मंज़िलत मानदन मेहरा
इस मिसरे को याद किया, और कहा कि बतलाइए, हमारे मन में किस भाषा का कौन-सा पद्य है। यह एक ऐसा पद्य था, जो उन योगिराजजी पर भी विलक्षण तरह से घटित होता था। इसका हमने कई मिनट तक मनन किया, पर वह महात्मा इसे न बता सके। इस प्रश्न के उत्तर में वह बेतरह फ़ेल हुए। तब हमने उनसे ये प्रश्न किए---