"छुट्टी पूरी होने पर गोरिंग साहब फिर हिंदोस्तान में तशरीफ़ लाए, और दो-चार दिन बाद मुझसे भेंट करने आए। मैं उनसे बड़े प्रेम से मिला और घटों बातें करता रहा। हम दोनो बँगले के बरामदे में बैठे हुए प्रेमालाप कर रहे थे कि वहाँ अचानक एक प्रसिद्ध ऐंद्रजालिक--एक मशहूर मदारी--आ पहुँचा। उस आदमी का बंगाले में बड़ा नाम था, मंत्र-विद्या में वह अद्वितीय था। लोग कहते तो ऐसा ही थे। मैं भी उसे एक अलौकिक ऐंद्रजालिक समझता था। उसके अनेक अद्भुत-अद्भुत खेल मैंने देखे थे। उसे देख कर मैं बहुत ख़ुश हुआ। मैंने कहा कि अब गोरिंग के अविश्वास को दूर करने का मौक़ा आ गया। मैं हिंदोस्तानी बोलने लगा, जिसमें वह मांत्रिक भी मेरी बातचीत समझ सके। मैं उसकी विद्या की प्रशंसा करने लगा और गोरिंग निंदा। गोरिंग ने उसे सुनाकर बार-बार इस बात पर जोर दिया कि मंत्र-विद्या बिलकुल झूठ है; इंद्रजाल कोई चीज़ नहीं। अति प्रकृत बातों का होना असंभव है। इस मधुर टीका को वह ऐंद्रजालिक चुपचाप सुनता रहा। उसने अपने मुँह से एक शब्द भी नहीं निकाला।
"उस समय मेरे पास ओर भी दो-एक आदमी बैठे थे। उनमें से एक और आदमी ने भी इस मशहूर मदारी केखेल देखे थे। वह मेरी तरफ़ हो गया। उसने मेरा पक्ष लिया। उसने कहा, मैंने इस
मनुष्य के किए हुए अद्भुत तमाशे अपनी आँखों देखे हैं। उनमें
से एक का वृत्तांत मैं आपको सुनाना भी चाहता हूँ। सुनिए---