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एक योगी की साप्ताहिक समाधि


मिला। कीलें निकालकर बाँक्स खोला गया। शरीर से लिपटी हुई मलमल की चादर धीरे-धीरे खोलकर अलग की गई। आँख, नाक, कान और मुँह का मोम निकाला गया। मुँह खूब अच्छी तरह धोया गया। इतना हो चुकन पर योगिवर्ग वहाँ से हट आया, और वेदी की प्रदक्षिणा करके उसने ओंकार का गान आरंभ किया। बाजे भी बजने लगे। तीसरी प्रदक्षिणा के समय समाधि-मग्न योगिराज का शरीर कुछ हिला, और कुछ ही देर में वह उठकर बैठ गए। उन्होंने अपने चारो तरफ़ इस तरह देखा, जैसे कोई सोते से जगा हो।

"यहाँ तक तो सब लोग पूर्ववत् बैठे रहे। परंतु जहाँ योगिराज उठे, और जमीन पर उन्होंने अपना पैर रक्खा, तहाँ दर्शकों ने कोलाहल आरंभ कर दिया। शंख, भेरी, नगाड़ों और नरसिंहों के नाद ने पृथ्वी और आकाश एक कर डाला। सबके मुँह से एक साथ आदरार्थक शब्दों के घोष से कानों के परदे फटने लगे। बराबर दस मिनट तक तुमुल-नाद होता रहा। किसी तरह धीरे-धीरे वह शांत हुआ। जिस क्रम से योगिराज ने वेदी पर पदार्पण किया था, उसी क्रम से उन्होंने प्रस्थान भी किया। सबके पीछे आप, उनके पागे वे तीन जरा-जीर्ण योगी, उनके आगे और सब लोग। इस तरह परमहंसजी पास के एक पर्वत की एक गुफा की तरफ़ गए। सुनते हैं, अब वह अंत समय तक वहीं, उसी गुफा में, रहेंगे और फिर कभी बस्ती में न आवेंगे।"