शिक्षक है, कोई लेखक है। कोई गाने-बजाने का व्यवसाय करता है। कोई कुछ, कोई कुछ। जो लोग इस तरह का कोई काम नहीं करते, वे भी पढ़ने-लिखने में लगे रहते हैं। अतएव उनका मनोरंजन हुआ करता है, और जीवन भारभूत नहीं मालूम होता।
बड़ी खुशी की बात है, अब इस देश के कलकत्ते और मदरास आदि दो-चार प्रसिद्ध प्रसिद्ध नगरों में भी अंधों को शिक्षा देने का प्रबंध हो गया है। वहाँ पाठशालाएँ खुल गई हैं, जिनमें लिखने-पढ़ने के सिवा कला-कौशल आदि को भी शिक्षा अंधों को दी जाती है।
अंधों को पढ़ाने के लिये पहले जिस तरह के ऊँचे उठे हुए अँगरेज़ी अक्षर काम में लाए जाते थे, उनसे अंधों की शिक्षा में बहुत बाधा पहुँचती थी। कई तरह के 'टाइप' ईजाद किए गए। पर सबमें, और दोषों के सिवा, सबसे बड़ा दोष यह था कि अंधे उनको पढ़ तो लेते थे, पर लिख न सकते थे। लोगों का पहले यह खयाल था कि बहरों का जैसे बहुत ज़ोर से बोलने पर ही शब्द सुनाई पड़ता है, वैसे ही अंधों को बड़े-ही-बड़े अक्षरों का स्पर्श-ज्ञान हो सकता है। अक्षर या टाइप जितने ही बड़े होंगे, उतना ही अधिक सुबीता अंधों को होगा, परंतु यह उनको भूल थी। दृष्टि-हीन हो जाने से अंधों का स्पर्श-ज्ञान इतना तेज़ हो जाता है कि वे उठे हुए बहुत छोटे-छोटे टाइप भी उँगली से छूकर पहचान सकते हैं। यही नहीं, किंतु रेशमी रूमाल के भीतर उँगलियों को रखकर भी वे अक्षर पहचान सकते हैं।