देवी है। पुरुष में प्राण-शक्ति की न्यूनता है। पुरुष में सामर्थ्य का व्यय है, स्त्री में आय। इसीसे नारी शील, संस्कार की जितनी वश वर्तिनी है उतना पुरुष नहीं।'
'यह कैसे?'
'आप देखते नहीं कि नारी जिसे एक बार स्पर्श करती है उसे अपने में मिला लेती है अपनापन खोकर।'
'और पुरुष?'
'पुरुष तो केवल जानना और देखना चाहता है, अपनाना नहीं।'
'नारी भी तो।'
'नारी निष्ठा के कारण वस्तु-संसर्ग में जाकर लिप्त हो जाती है, जब कि पुरुष उससे अलग रहता है।'
'तो इसीसे क्या पुरुष नारी से हीन हो गया?'
'क्यों नहीं, जहां तक प्रतिष्ठा का सवाल है, नारी पुरुष से आगे है।'
'कहां?'
'अपने सारे जीवन में, नारी की प्रतिष्ठा प्राणों में है--पुरुष की विचारों में। इसलिए नारी सक्रिय है और पुरुष निष्क्रिय। इसीसे पुरुष भगवान का दास है, परन्तु नारी पत्नी है। पुरुष भक्ति देता है, स्त्री प्रेम। पुरुष विश्व को केन्द्र मानकर आत्म-प्रतिष्ठा की चेष्टा करता है और स्त्री आत्मा को केन्द्र मानकर विश्व-प्रतिष्ठा करती है। इसीसे समाज-रचना और परिपालन में वही प्रमुख है।'
'फिर भी वह पुरुष पर आश्रित है।'
'वह कृत्रिम है। वास्तव में नारी केन्द्रमुखी शक्ति है और पुरुष केद्र विमुखी। नारी-संसर्ग से ही पुरुष सभ्य बना है। नारी से ही धर्म-संस्था टिकी है। एक अग्नि है दूसरा घृत। अग्नि में घृत की