निरीह प्राणियों को अपनी इस जीवन की घुड़दौड़ में न घसीटिएगा। दया कीजिए। मेरी पत्नी मेरे साथ कर दीजिए, मैं उसे समझा लूंगा, उससे निपट लूंगा।'
'अच्छा तो आप चाहते हैं कि मैं चपरासी को बुलाऊं? या पुलिस को फोन करूं?
'जी नहीं, मैं चाहता हूं कि आप मायादेवी को यहां बुला दें। मैं उन्हें अपने घर ले जाऊं।'
'यह नहीं हो सकता।'
'यह बड़ा अन्याय है, श्रीमतीजी!
'आप जाते हैं, या चपरासी बुलाया जाए?...'
'चपरासी....'ओ चपरासी!'
देवीजी ने उच्च स्वर से पुकारा। अपनी टेढ़ी और घिनौनी मूंछों में हंसता हुआ हरिया आ खड़ा हुआ। अर्ध उद्दण्डता से बोला---
'क्या करना होगा मेम साहेब?'
मेम साहब के कुछ कहने से प्रथम ही मास्टर साहब---'कुछ, नहीं, भाई, कुछ नहीं' कहते हुए अपना छाता उठा ऑफिस से बाहर हो गए। चलती बार वे श्रीमती को नमस्ते कहना भूले नहीं। उनके हृदय में द्वन्द्व मचा हुआ था।
१४
रात के नौ बज रहे थे। क्लब के एक आलोकित कमरे में तीन व्यक्ति बड़ी सरगर्मी से बहस में लगे थे। तीनों में एक थे डाक्टर कृष्णगोपाल, दूसरे सेठजी और तीसरी थीं श्रीमती मालतीदेवी!