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९२ :: अदल-बदल
 


कीजिए।'

'छी, छी! श्रीमतीजी, आप महिलाओं की हितैषिणी हैं, आप कभी यह पसन्द नहीं करेंगी।'

जी, मैं तो यह भी पसन्द नहीं करती कि पुरुष स्त्रियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध अपनी आवश्यकताओं का गुलाम बनाएं।'

'कहां, हम तो उन्हें अपने घर-बार की मालकिन बनाकर, अपनी प्रतिष्ठा, सब कुछ सौंपकर निश्चिन्त रहते हैं। जो कमाते हैं, उन्हीं के हाथ पर धरते हैं, फिर प्रत्येक वस्तु और कार्य के लिए उन्हीं की सहायता के भिखारी रहते हैं।'

'विचित्र प्रकृति के व्यक्ति हैं आप, अब मुझीसे उलझ रहे हैं। आप यह व्याख्यान किसी पत्र में छपवा दीजिएगा। आपकी युक्तियों का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है।'

'किन्तु श्रीमतीजी, आप एक पति और उसकी पत्नी के बीच इस प्रकार का व्यवधान मत बनिए।'

'अच्छा तो आप मुझे धमकाना चाहते हैं?'

'मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, विनय करता हूं। आप भद्र महिला हैं। एक माता को उसकी रुग्णा पुत्री से, उसके निरीह पति से पृथक् मत कीजिए। आप बड़े घर की महिलाएं, और आप के पतिगण, यह सब विच्छेद सहन करने की शक्ति रखते हैं, हम बेचारे गरीब अध्यापक नहीं। हमारी छोटी-सी गरीब दुनिया है, शान्त छोटा-सा घर है, एक छोटे-से घोंसले के समान। हम लोग न ऊधो के लेने में और न माधो के देने में। दिनभर मेहनत करते है--घर में पत्नी और बाहर पति, और रात को अपनी नींद सोते हैं। आप बड़े-बड़े आदमियों का शिकारी जीवन है, उसमें संघर्ष है, आकांक्षाएं हैं, प्रतिक्रिया है और प्रतिस्पर्धा है। इन सबके बीच आप लोंगों का व्यक्तिगत जीवन एक गौण वस्तु बन जाता है। पर हम लोग इन सब झंझटों से पाक-साफ हैं। कृपया हम जैसे