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वास्तव में उसका अपना तो कोई घर है ही नहीं, और वह बुरी-से-बुरी दशा में है।

मैं कहूंगा कि भारत में ऐसी असहाय स्त्रियां लाखों नहीं करोड़ों हैं। खासकर शिक्षित और उच्च परिवारों में यह अधिक हैं। उन्हें गहना, कपड़ा, धन सब कुछ मिलता है, पर प्रायः पति नहीं मिलता। मेरा अभिप्राय यह है कि पति को पत्नी के जितना निकट होना चाहिए, वह उतना निकट नहीं होता। इसीका यह परिणाम होता है कि सब कुछ पाकर भी पत्नी अपने को असहाय तथा गैर समझती है।

यह समझने की बात है कि पति को पत्नी और पत्नी को पति ये दो चीजें एक-दूसरे के लिए परम दुर्लभ और महामूल्यवान हैं। लाखों में एक भी पुरुष यथार्थनाम पुरुष नहीं और लाखों में एक भी स्त्री यथार्थनाम स्त्री नहीं। जो कोई भी स्त्री-पुरुष यथार्थनाम पति-पत्नी हैं, वे अपने जन्म को सफल कर चुके, उन्हें सब कुछ इहलोक और परलोक में मिल गया। पति-पत्नी परस्पर एक- दूसरे को प्राप्त करके फिर किसी वस्तु की चाह नहीं रख सकते। उन्हें तो जगत् का सब कुछ मिल गया। धन-सम्पदा क्या चीज है।

"टूट टाट घर, टपकत खटियो टूट।

पिय की बांह उसिसवा सुख के लूट।"

सीता, राम के साथ वन के विकराल कष्ट सहन करती है। वह समझती है---

"जिय बिनु देह, नदी बिनु बारी।

तैसेहि नाथ पुरुष बिनु नारी।"

परन्तु जो स्त्री-पुरुष पति-पत्नी के गहन आध्यात्मिक सम्बन्ध को उत्पन्न नहीं कर सकें, उनके लिए 'पति-घर' ही 'पर-घर' नहीं, 'पति' भी 'पर-पति' है और इसी भांति पति के लिए वह स्त्री पत्नी नहीं, जी का जंजाल या पैर की बेड़ी है।