जाएगा।'
'तब तो श्रीमती जी फीस का मसला ही खत्म'-आप चाहें तो ये पचास रुपये भी लेती जाइए।'
'अभी उन्हें रखिए। शायद आपको अभी जरूरत पड़ जाए तो मैं आपके पास कल कचहरी में मिलूं?'
'कचहरी में क्यों, यहीं आइए। हम लोग साथ-साथ चाय पिएंगे, और काम की बातें करेंगे, एक-दूसरे को समझेंगे, समझती हैं न आप?'
'खूब समझती हूं।'
'कमाल करती हैं आप। क्या साफगोई है। मान गया। तो पक्की रही, आप आ रही हैं न कल?'
'मै कचहरी में मिलूंगी, आप सब कागजात तैयार रखिए।'
'लेकिन मेरी दर्खास्त...' वकील साहब ने बेचैनी से कहा।
मायादेवी ने उठते हुए कहा-'पहले मेरी दर्खास्त की कार्यवाही हो जाए।'
वकील साहब हंस पड़े। 'अच्छा, अच्छा, यह भी ठीक है।' उन्होंने कहा।
मायादेवी 'नमस्ते' कह विदा हुई।
मास्टर हरप्रसाद ने वह रात बड़े कष्ट और उद्वेग से काटी। रुग्णा बालिका को छोड़कर वे रात में कहीं जा भी नहीं सकते थे। और मायादेवी का इस प्रकार चला जाना उनके लिए एक असंभावित घटना थी। इसकी उन्होंने कभी कल्पना भी न की थी। वे