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८४ :: अदल-बदल
 

सिर्फ भरी गई है, भुलावे में आई है। ईश्वर करे, उसे सुबुद्धि प्राप्त हो, वह लौट आए---मेरे पास नहीं, मैं जानता हूं, मैं अच्छा पति नहीं, मैं उसकी अभिलाषाओं की पूर्ति नहीं कर सकता। मेरी क्षुद्र आमदनी उसके लिए काफी नहीं है। फिर भी प्रभा के लिए लौट ही आना चाहिए उसे। पता नहीं कहां गई? पर उसे तलाश करना होगा। उसके गुस्से को इतना सहा है, और भी सहना होगा। और उसने समझा हो या न समझा हो, उसका यह कहना तो सही है ही कि मुझे उसे बलपूर्वक अपने दुर्भाग्य से बांध रखने का कोई अधिकार नहीं है।

क्षणभर के लिए मास्टर साहब को तनखाह के गोल-गोल चालीस रुपये झल-झल करके उनके कानों में चालीस की गिनती कर गुम-गुम होने लगे और उनकी दरिद्रता, असहाय गृहस्थी विद्रूप कर ही-ही करके उनका उपहास करने लगी।

१२

घर से बाहर आते ही थोड़ी दूर पर मायादेवी को एक खाली तांगा दीख पड़ा और वह उस पर सवार हो गई। जब तांगे वाले ने पूछा कि, कहां चलूं? तो मायादेवी क्षणभर के लिए असमंजस में पड़ गईं। झोंक में आकर जो उन्होंने घर त्यागा था, तब खून की गर्मी में आगा-पीछा कुछ भी नहीं सोचा था---अब वह एकाएक यह निर्णय न कर सकीं कि कहां चलें। परन्तु फिर यह उन्हें उचित प्रतीत न हआ। पहले यही बात उनके मन में थी, परन्तु भनिती को ऐसा करना अपमानजनक लगने लगा। फिर उन्होंने आजाला संघ में जाने की सोची, पर इस समय