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८२ :: अदल-बदल
 

'वह कब आएंगी बाबूजी, मैं उससे नहीं बोलूंगी, रूठ जाऊंगी।'

'नहीं बेटी, अच्छी लड़की अम्मा से नहीं रूठा करतीं। लो, दवा पी लो।'

उन्होंने धीरे से बालिका को उठाकर दवा पिला दी, और उसे लिटाकर चुपके से अपनी आंखें पोंछीं।

दूसरे दिन रात्रि में माया आई। उसने न रुग्ण पुत्री की ओर देखा, न भूख-प्यास से जर्जर चितित पति को। वह भरी हुई जाकर अपनी कोठरी में द्वार बन्द करके पड़ गई। कुछ देर तो मास्टरजी ने प्रतीक्षा की। बालिका सो गई थी। वे उठकर पत्नी के कमरे के द्वार पर गए और धीरे से कहा--'प्रभा की मां, प्रभा सुबह ही से बेहोश पड़ी है, तुम्हारी ही रट बेहोशी में लगाए है। आओ, तनिक उसे देखो तो।'

'भाई, मैं बहुत थकी हूं, ज़रा आराम करने दो।'

'उसे बड़ा तेज़ बुखार है।'

'तो दवा दो, मैं इसमें क्या कर सकती हूं। मैं कोई वैद्य-डाक्टर भी तो नहीं हूं।'

'लेकिन मां तो हो।'

'मां बनना पड़ा तो काफी गू-मूत कर चुकी। अब और क्या चाहते हो?'

'प्रभा की मां, वह तुम्हारी बच्ची है।'

'तुम्हारी भी तो है।'

मास्टरजी को गुस्सा आ गया। उन्होंने कहा--'किन्तु बच्चों की देख-भाल तो मां ही कर सकती है।'

'पर बच्चे मां के नहीं, बाप के हैं। उन्हें ही उनकी सम्हाल करनी चाहिए।'

'यह तुम कैसी बात कर रही हो प्रभा की मां, ज़रा लड़की