पैशाच---जिसमें सोती हुई, बेहोश या पागल कन्या का कौमार्य नष्ट किया जाए।
क्या आप खयाल कर सकते हैं कि यही स्त्रियों के प्रति मनुष्यता का व्यवहार है? कन्या एक गाय-बैल के जोड़े के बदले में दे दी जाए? यही उसका मूल्य है? अथवा पुरोहितों को दक्षिणा में दे डाली जाए? यह तो गुलामी से भी बढ़कर बात हुई। फिर राक्षस विवाह? इस विवाह को तो राक्षस लोग ही कर सकते हैं—--मनुष्य-समाज की दृष्टि में तो यह घोर अमानुषी अपराध है। आप कह सकते हैं कि गान्धर्व विवाह में वर-वधू को स्वतन्त्रता है, परन्तु यदि आप गान्धर्व विवाह की व्याख्या वात्स्यायन काम- सूत्र में देखें तो आप समझ जाएंगे कि वह पाप और अनाचार है, विवाह नहीं। क्या आपने कभी दुष्यन्त-शकुन्तला के गान्धर्व विवाह पर भी गौर किया है, जिसे कालिदास की कोमल काव्य- कल्पना ने अमर बना दिया है। आप महाभारत में मूल आख्यान को पढ़िए। आप देखेंगे कि राजा शिकार खेलता ऋषि के आश्रम में जा निकला है। वहां ऋषि को गैरहाजिरी में ऋषि-कन्या शकुन्तला उसका आतिथ्य करती है और वह अपनी अनेक स्त्रियों के रहते भी उस कुमारी को फुसलाकर वहीं उससे व्यभिचार भी करता है और भांति-भांति के सब्ज बाग दिखाकर, जैसा बहुधा ऐसी दशा में लोग किया करते हैं, चला जाता है। पीछे जब कण्व आकर सब बात सुनते तथा लड़की को गर्भवती पाते हैं तो उसे दुष्यन्त के पास भेज देते हैं, जिसे देखकर वह घोर लम्पट की भांति उसे पहचानने से इन्कार कर देता है कि मैं तो तुझे जानता ही नहीं। पीछे वह बेचारी अपनी माता के यहां आश्रय पाती है और अन्त में जब वृध्दावस्था में राजा के कोई सन्तान नहीं होती तो वह उसे ले आता है।
आप क्या इसे पवित्र विवाह कहना चाहते हैं? स्वयम्वरों के