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अदल-बदल :: ६७
 

मन में बीज ही न रहा। वे यों भी बहुत कम घर में आते। परन्तु जब-जब आते---या तो शराब के नशे की झोंक में बकते-झकते, या बदहवाश होकर सो रहते, या पत्नी से छोटी-छोटी बातों में नोंक-झोंक करते।

विमला देवी के धैर्य का भी अन्ततः बांध टूटा और खूबसहिष्णु और गम्भीर होने पर भी वह अधीर होकर उत्तेजित हो जातीं। पहले डाक्टर बक-झक करके ही रह जाते थे। अब मार-पीट भी करने लगे। गाली-गलौज भी इतनी गन्दी बकते कि, विमलादेवी सुनने में असमर्थ हो भागकर अपनी कोठरी का, भीतर से द्वार बन्द करके पलंग पर जा पड़तीं। ऐसी अवस्था में क्रोध से फुफ- कारते हुए घर से बाहर चले जाते और फिर बहुधा दो-दो, तीन- तीन दिन तक घर न आते थे।

इस प्रकार डाक्टर कृष्णगोपाल की ज्यों-ज्यों डाक्टरी सफल होती गई, त्यों-त्यों उनकी गृहस्थी बिगड़ती गई। विमलादेवी बहुत दुखी रहने लगीं। पुत्री के खराब स्वास्थ्य ने तो उन्हें चिन्तित कर ही रखा था---अब पुत्री तथा अपनी घर-गृहस्थी की ओर से पति की यह उपेक्षा देख, उनका मन वेदना और क्षोभ से भरा रहता। उन्हें बहुधा उपवास करना पड़ता। पति-पत्नी में जब झगड़ा होता तब तो निश्चय चूल्हा जलता ही नहीं था, परन्तु अपने मन की विकलता और अन्तरात्मा के क्षोभ के कारण बहुधा ऐसा होता कि पति और पुत्री को खिला-पिलाकर वह चुपचाप बिना कुछ खाए-पिए सो जाती।

पुत्री सावित्री यद्यपि नौ वर्ष की छोटी बालिका थी, पर बहुत सौम्य और कोमल वृत्ति की थी। चिरकाल तक अस्वस्थ रहने से उसमें एक गम्भीर उदासी भी आ गई थी। माता के दुःख को वह कुछ-कुछ समझने लगी थी। मां का प्रेम, उसका सेवा-भाव और उसका दुःख, यह सब देख छोटी-सी बालिका मां को कभी-कभी