यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
अदल-बदल :: ६३
 


दोनों को एक होकर रहने ही में उनका और संसार का भला है।

इसका परिणाम यह हुआ कि मायादेवी का मन अपने पति, पुत्री और घर से बिल्कुल उतर गया और उसका मन इन सबसे विद्रोह करने को उन्मत्त हो उठा। स्त्री-स्वातन्त्र्य की आड़ में वासना और अज्ञान का जो अस्तित्व था, उस पर उसने विचार नहीं किया।

डाक्टर कृष्णगोपाल दुनिया देखे हुए चंट आदमी थे। मायादेवी पर उनकी बहुत दिन से नजर थी। अब ज्योंही उन्हें मायादेवी की मानसिक दुर्बलता का पता चला तो उन्होंने उसे स्त्रियों की स्वाधीनता की वासना से अभिभूत कर दिया। मायादेवी के सिर पर स्त्री-स्वातन्त्र्य का ऐसा भूत सवार हुआ कि उन्होंने इसके लिए बड़े-से-बड़ा खतरा उठाना स्वीकार कर लिया। और एक दिन डाक्टर से उसकी खुलकर इस सम्बन्ध में बातचीत हुई।

डाक्टर ने कहा--'अब आंखमिचौनी खेलने का क्या काम है मायादेवी! जो करना है वह कर डालिए।'

'मैं भी यही चाहती हूं। परन्तु आपसे डरती हूं। सच पूछा जाए तो मैं पुरुष मात्र पर तनिक भी विश्वास नहीं करती।'

'क्या मुझपर भी?'

'क्यों, आप में क्या सुरखाब के पर लगे हैं?'

'मेरा तो कुछ ऐसा ही ख्याल था।'

'वह किस आधार पर?'

'श्रीमती मायादेवी इस दास पर इतनी कृपादृष्टि रखती हैं, इसी आधार पर!'

'तो आप मुंह धो रखिए! मैं पुरुषों की, कानी कौड़ी के बरा बर भी इज्जत नहीं करती, मैं उनके फंदे में फंसकर अपनी स्वाधीनता नष्ट करना नहीं चाहती। मुझे क्या पड़ी है कि एक बन्धन छोड़ दूसरे में गर्दन फंसाऊं।'