इसी समय मास्टर साहब ने झपटते हुए आकर पुत्री को पुकारकर कहा---
'पानी गर्म हुआ बेटी?'
'जी हां, गर्म हो गया।'
डाक्टर ने सूई लगाकर कहा---'मास्टर, साहब,श्रीमतीजी को शायद बारह सूई लगानी पड़ेंगी। मेरा निरन्तर आना मुश्किल है, बहुत काम रहता है। अच्छा होता, श्रीमतीजी बारह-एक बजे दोपहर को डिस्पेन्सरी में आ जाया करें, उसी समय ज़रा फुर्सत रहती है। ज्यादा समय नहीं लगेगा।'
मास्टर साहब ने सिर खुजाकर कहा---'लेकिन वह तो मेरे स्कूल जाने का समय है।'
'तो क्या हर्ज है, श्रीमतीजी बच्चे के साथ या किसी नौकर को लेकर आ सकती हैं, ज्यादा दूर भी तो नहीं है।'
मास्टर साहब ने कहा---'तब ठीक है, ऐसा ही होगा। आपका मैं बहुत कृतज्ञ हूं।' उन्होंने फीस देकर डाक्टर को विदा किया।
डाक्टर कृष्णगोपाल ने श्रीमती मायादेवी का ठीक-ठीक इलाज कर दिया। उनका प्रतिदिन डिस्पेन्सरी में आना, यथेष्ट समय तक वहां ठहरना, गपशप उड़ाना, ठहाके लगाना, बालिका की आंखों में धूल झोंकना, सब कुछ हुआ। मायादेवी की धृष्टता और साहस बहुत बढ़ गया। डाक्टर से, प्रथम संकेत में साफ-साफ उसकी बात हो गई। प्रेम के बहुत-बहुत प्रवचन हुए, वायदे हुए, मान-मनौवल हुई। अन्त में दोनों ही इस परिणाम पर पहुंचे कि