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अदल-बदल :: ५३
 


चाहतीं, सम्बन्ध स्थापित करके बच्चा पैदा कर सकती थीं। वे ही बच्चे की मालकिन कहलाती थीं, पुरुष का उससे कोई सम्बन्ध न था। बाद में जब धन-सम्पत्ति बढ़ी, नागरिकता का उदय हुआ, और पुरुष अपनी विजयिनी शक्ति के कारण उसका मालिक हुआ तो--वह धीरे-धीरे स्त्रियों का भी मालिक बनता चला गया। वह जमाना था 'जिसकी लाठी उसकी भैंस'। एक दल दूसरे से लड़ता था--तो जीतनेवाला दल हारने वाले दल का घर-बार, सामान सब लूट लेता था--उसी लूट में वह स्त्रियों को भी लूट लाता और अपने घर की दासी बनाकर रखता। तरुणी और सुन्दरी, ये विजिता दासियां आगे चलकर आधीन पत्नियां बनती गई। समाज में बहु-पत्नीत्व का प्रचलन हुआ और स्त्रियां पुरुष के अधीन हुई।'

'किन्तु अब?'

'अब स्त्रियों की आर्थिक दासता ही उनकी सामाजिक स्वाधीनता की बाधक है। वे घर में रहकर यदि गृहस्थी चलाएं तो कुछ कमा तो सकतीं नहीं। केवल पति की आमदनी पर ही उन्हें निर्भर रहना पड़ता है है। पर इतना अवश्य है कि गृहस्थी में गृहिणी पति की कमाई पर निर्भर रहकर भी उतनी निरुपाय नहीं है। उसकी बहुत बड़ी सत्ता है, बहुत भारी अधिकार है। पति तो उसके लिए सब बातों का ख्याल रखता ही है--पुत्र भी उसकी मान-मर्यादा का पालन करते हैं।'

मायादेवी ने तिनककर कहा--'क्या मर्यादा पालन करते हैं? पति के मरने पर वह पति की संपत्ति की मालिक नहीं बन सकती, मालिक बनते हैं लड़के लोग। जब तक पति जीवित है वह उसके आगे हाथ पसारती हैं, और उसके मरने पर पुत्रों के आगे। उसकी दशा तो असहाय भिखारिणी जैसी है।"

'यह ठीक है, बुरे पति और बेटे स्त्रियों को कष्ट देते हैं।