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अदल-बदल :: ५१
 


अधिकार देने पड़ेंगे।'

'लेकिन किस तरह महाशय, समानता के अधिकारों से आपका मतलब क्या है? आप यह तो नहीं चाहते कि एक बार बच्चा स्त्री जने और दूसरी बार पुरुष। मासिक धर्म एक महीने स्त्री को हो, दूसरे महीने पुरुष को।'

'यह आप बहस नहीं कर रहे हैं, बहस का मखौल उड़ा रहे हैं। मेरा मतलब यह है कि स्त्री-पुरुषों को समाज में समान अधिकार प्राप्त हों।'

'तो इस बात से कौन इन्कार करता है। बात इतनी ही तो है कि पुरुष घर के बाहर काम करते हैं, स्त्रियां घर के भीतर। अब आप उन्हें घर से बाहर काम करने की आजादी देते हैं तो मेरी समझ में तो आप उन्हें उनकी प्रतिष्ठा तथा शान्ति को खतरे में डालते हैं।'

'यह कैसे?'

'मैं देख रहा हूं। अब से बीस-पचीस वर्ष पहले हमारे घर की बहू-बेटियां घर की दहलीज से बाहर पैर नहीं धरती थीं। वे पर्दा- नशीन महिलाओं की मर्यादा धारण करती थीं। रोती थीं तब भी घर की चहारदीवारी के भीतर और हंसती थीं तब भी वहीं। वे अपने पति पर आधारित थीं। पति ही उनका देवता और सब कुछ था। वे लड़ती भी थीं और प्यार भी करती थीं। पर यह बात घर से बाहर नहीं जाती थी। बाहरी पुरुषों के सामने न उनकी आंखें उठती थीं, न जबान खुलती थी। वे अधिक पढ़ी-लिखी भी न होती थीं। घर-गृहस्थी का काम, बच्चों की सार-संभाल और पति की सेवा--बस इसीमें उनका जीवन बीत जाता था। यह क्या बुरा था?

'और अब?'

'उनको क्या? मैं तो यह देखता हूं कि अच्छे-अच्छे घरानों की