डाक्टर कृष्णगोपाल आज बहुत खुश थे। वे उमंग में भरे थे, जल्दी-जल्दी हाथ में डाक्टरी औजारों का बैग लिए घर में घुसे, टेबुल पर बैग पटका, कपड़े उतारे और बाथरूम में घुस गए। बाथरूम से सीटी की तानें आने लगी और सुगन्धित साबुन की महक घर भर में फैल गई। बाथरूम ही से उन्होंने विमलादेवी पर हुक्म चलाया कि झटपट चाइना सिल्क का सूट निकाल दें।
विमलादेवी ने सूट निकाल दिया, कोट की पाकेट में रूमाल रख दिया और पतलून में गेलिस चढ़ा दी। परन्तु डाक्टर कृष्ण-गोपाल जब जल्दी-जल्दी सूट पहन, मांग-पट्टी से लैस होकर बाहर जाने को तैयार हो गए---तो विमलादेवी ने उनके पास आकर धीरे से कहा---'और खाना?'
'खाना नहीं खाऊंगा।'
'क्यों?'
'पार्टी है, वहां खाना होगा।'
'लेकिन रोज-रोज की ये पार्टियां कैसी हैं?'
'तुम्हें इस पंचायत से वास्ता?'
'आप नाहक तीखे होते हैं, आखिर यह घर है कि सराय! सुबह से निकले और अब नौ बजे हैं। दिनभर गायब। अब आए सो चल दिए। शायद एक-दो बजे आएंगे, शराब में बदहवास। अबमैं कहां तक रोज-रोज यह भुगतूं। यह कोनसा जिन्दगी का तरीका है।'
डाक्टर ने घड़ी पर नजर फेंककर कहा---'ओफ, नौ यहीं बज गए? गजब हो गया। झटपट सेफ से दो सौ रुपये निकाल दो। देर हो रही है।'
'दो सौ रुपये किसलिए?'