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मेरा क्या दोष है ? आपने मुझे देखा क्यों नहीं ? समझा क्यों नहीं? लोग तो पशु को भी मनुष्य बना लिया करते हैं। आप मनुष्य को भी मनुष्य नहीं रहने दे सकते ? मैं प्रतिवर्ष प्रसूतिगृह में सड़ और तुम निश्चिन्त हो विचरो ! बुद्धिमानी शायद यही है ! पुरषत्व भी यही है ! सम्भव है, प्राकृतिक नियम भी यही है। स्त्रियां केवल बच्चे पैदा करने की मशीनें हैं। मैंने आपको मन की बात बता दी, शायद ठीक नहीं किया। मैं समझती हूं आप भी उसी कट्टरपंथी धर्म के अनुगामी होंगे। मैं तो नवयुग की नवीन संस्कृति में पली हू और उसे ही मानती हूं। मैं वह सर्प हूं जो चोट खाए पर बिना काटे नहीं रहता। न में आईना हूं जो सिर्फ सामने चमकता है और न मैं तोताचश्म हूं। फिर भी मैं सदा प्रसन्न-चित्त रहती रही । वे कभी मेरे दुःख का अनुमान भी नहीं कर सके । मैं एकान्त में रो लेती हूं, उनके सामने मैं रोना भूल जाती हूं। वे अपनी सब भूलें भोले-भाले बालक की भांति स्वीकार कर लेते हैं और विविध प्रतिज्ञा, कौल-करार करते हैं, पर ये सब बातें केवल उसी समय तक। छोड़िए इन कहानियों को। आप तो पुरुष हैं न ? 'पर-घर' कभी रहे नहीं, पराये दिए टुकड़े और वस्त्र पाए नहीं, फिर काहे को आपके आत्मसम्मान में ठोकर लगी होगी। खैर, आप यह कहिए कि क्या आप मुझे नीरोग कर सकते हैं, और मैं साहित्य-क्षेत्र में कैसे उतर सकती हूं? इन दो बातों में यदि आप मेरी सहायता कर देंगे, तो मै क्लेशों से मुक्त हो जाऊंगी। आप भी यश के भागी होंगे। के इसी अंक में 'अति प्रलाप' कविता देखिए, कैसी है?

-शुभेच्छुका
 

यह सजीव और जाग्रत पत्र नारी-हृदय के विद्रोह और अहंकार से ओत-प्रोत है। यह महिला संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी की अच्छी पंडिता हैं। हिन्दी कविता सुन्दर करती हैं। पर पति महाशय