यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३८:: अदल-बदल
 

ओर देखने लगी।

मास्टरजी ने कहा-'खाना खा लो प्रभा की मां।'

'मैं तो खा आई हूं।' फिर उसने दो-तीन साड़ियां उलट-पुलट करते हुए पति की ओर देखकर पूछा-'ज़रा देखो तो,कौन-सी ठीक जंचेगी।'

परन्तु मास्टर ने थोड़ा क्रुद्ध होकर कहा.. 'ये साड़ियां इस वक्त क्यों देखी जा रही हैं ?

'मुझे जाना है।' माया ने जल्दी-जल्दी हाथ चलाते हुए कहा।

मास्टर ने कहा-'यह घर से बाहर जाने का समय नहीं है, बाहर से आकर आराम करने का समय है।'

'भाई, तुमने तो नाक में दम कर दिया। मुझे जाना है। आज आजाद महिला-सघ में डान्स है, जानते तो हो-मेरे न होने से वहां कैसा बावैला मच जाएगा।'

'तो दिन-दिनभर घर से बाहर रहना काफी न था, अब रात- रातभर भी घर से बाहर रहना होगा?'

'पिजरे में बंद पंछी की तरह रहना मुझे पसन्द नहीं है।'

'परन्तु नारी धर्म का निर्वाह घर ही में होता है। घर के बाहर पुरुष का संसार है। घर के बाहर स्त्री, पुरुष की छाया की भांति अनुगामिनी होकर चल सकती है, और घर के भीतर पुरुष पुरुषत्व धर्म को त्यागकर रह सकता है। यह हमारी युग-युग की पुरानी गृहस्थ-मर्यादा है।' मास्टरजी ने आवेश में आकर कहा।

किन्तु माया दूसरे ही मूड में थी। उसने नाक-भौं सिकोड़कर कहा-'इस सड़ी-गली मर्यादा के दिन लद गए। अब स्वतन्त्रता के सूर्य ने सबको समान अधिकार दिए हैं, अब आप नारी को बांधकर नहीं रख सकते।

बांधकर रखने की बात नहीं। नारी का कार्यक्षेत्र घर है,