प्रभा ने उतावली से कहा-'बापू हैं, मैं जानती हूं।'
'हां, जिन्होंने भारत की दासता की बेड़ियां काटी, प्रेम की गंगा भारत में बहाई, हमें जीवन दिया और अपना जीवन बलि- दान किया। जो विश्व-क्रान्ति के पिता-अहिंसा के पुजारी और सत्य के प्रतीक थे।'
बड़ी देर तक मास्टरजी दीवार पर लगी हुई उन महापुरुषों की तस्वीरों की प्रशंसा करते रहे। फिर उन्होंने कहा-'पुत्री, जो कोई इन महापुरुषों के पदचिन्हों पर चलेगा, उसका जीवन धन्य हो जाएगा।'
प्रभा ने कहा-'पिताजी मैं बड़ी होकर इन महापुरुषों की शिक्षाओं पर चलूंगी।'
मास्टरजी ने पुत्री की पीठ पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा- 'पुत्री, ये सब हमारे देश के पूज्य पुरुष हैं, उनकी नित्य पूजा-सेवा करना बालकों का धर्म है।'
पिता-पुत्री इस प्रकार वार्तालाप में मग्न थे कि मायादेवी ने झपटते हुए घर में प्रवेश किया। सीधी अपने कमरे में चली गई।
प्रभा ने प्रसन्न मुद्रा से कहा-'पिताजी! माताजी आ गई।'
मास्टरजी ने सहज स्वर में कहा-'इतनी देर कर दी। बेचारी प्रभा भूखो बैठी है, कहती है, माताजी के साथ ही खाऊंगी।'
बालिका ने कहा-'माताजी, अभी पिताजी ने भी तो भोजन नहीं किया है। आओ, हमको भोजन दो।'
मायादेवी इस समय शृंगार-टेबुल के सामने बैठकर जल्दी-जल्दी होंठों पर लिपिस्टिक फेर रही थी, उसने वहीं से कहा-'मुझे फुर्सत नहीं है।'
माता का यह रूखा जवाब सुनकर भूखी पुत्री पिता की