चारों ओर स्त्री-पुरुष जिनका आदर करते हैं, जिन्हें प्रणाम करते हैं, हंस-हंसकर झुककर जिनका सम्मान करते हैं, उनमें कोई घर को त्याग चुकी है, कोई पति को त्याग चुकी है; उनका गृहस्थ- जीवन नष्ट हो चुका है, वे स्वच्छन्द हैं, उन्मुक्त हैं, वे बाधाहीन हैं, वे कुछ घंटों ही के लिए नहीं, प्रत्युत महीनों तक चाहे जहां रह और चाहे जहां जा सकती हैं, उन्हें कोई रोकने वाला, उनकी इच्छा में बाधा डालने वाला नहीं है। उसे लगा, यही तो स्त्री का सच्चा जीवन है। वे गुलामी की बेड़ियों को तोड़ चुकी हैं, वे नारियां धन्य हैं।
ऐसे ही एक सामाजिक मिलन में उसका परिचय नगर के प्रख्यात डाक्टर कृष्णगोपाल से हुआ। डाक्टर से ज्योंही उसका अकस्मात् साक्षात् हुआ, उसने पहली ही दृष्टि में उसकी भूखी आंखों की याचना को जान लिया। उसने अनुभव किया कि सम्भवतः इस पुरुष से उसे मानसिक सुख मिलेगा। उधर डाक्टर भी अपने पौरुष को अनावृत करके निरीह भिखारी की भांति प्रशंसक वचनों पर उतर आया। याचक की प्रियमूर्ति, जिसके दर्शन से ही संचारीभाव का उदय होता है, और जिसका आतुर आकुल शरीर स्पर्श उष्णता प्रदान करता है, ऐसा ही यह व्यक्ति, उसे अनायास ही प्राप्त हो गया।
एक दिन सभा में जब सभानेत्री महोदया, तालियों की प्रचण्ड गड़गड़ाहट में ऊंची कुर्सी पर बैठी ( उपस्थित प्रमुख पुरुषों और महिलाओं ने उन्हें सादर मोटर से उतारकर फूलमालाओं से लाद दिया था ) तो माया के पास बैठी एक महिला ने मुंह बिचकाकर कहा---'लानत है इसपर; यहां ये ठाट हैं, वहां खसम ने पीटकर घर से निकाल दिया है। अब मुकदमेबाजी चल रही है।'
दूसरी देवी ने कुतूहल से पूछा---'क्यों? ऐसा क्यों है?'
'कौन अपनी औरत का रात-दिन पराये मर्दो के साथ घूमते